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दफ़न हो जाना चाहिए ऐसे शताब्दी को....!

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जब यह शताब्दी अपने ही विकृतियों के बोझ तले ढह जाएगी दब जाएगी  सैंकड़ो फिट नीचे और जब ढूंढ़ी जाएगी पुरातत्व विभाग द्वारा किसी काल में ऐसा काल जिसने नहीं जाना क्या होती बंदूक, क्या होती गोली क्या होता बारूद ऐसा काल जिसमे वह शब्द, 'राष्ट्रवाद' न हो जो पैदा करता है आतंकवाद जो पैदा करता है तानाशाह जब मिलेंगे उसे किताब के कुछ पन्ने जिसमें लिपिबद्ध होंगे कुछ क़ानून जिसमें लिखा होगा कैसे करना है एक ख़ूनी का ख़ून मिलेंगे ऐसे भी कुछ पन्ने जिसमें लिखा होगा कि नाश्ते में लेना है फलाँ नारा, खाने में फलाँ कहेगा ख़ुदाई करने वाला_ खोदो 100-200 फीट और दफ़न कर दो इसे धरातल में कि कोई ढूंढ न पाए इसे किसी काल में                                       राहुल सिंह  नोट : यह कविता 'दया पवार' के कविता से प्रेरित है    

मोनिका-विश्वा (लप्रेक )

"... विश्वा तुम हाथ पीछे रखकर क्यों चल रहे हो ? तुम्हारे हाथ में कुछ है क्या ? बताओ मुझे। अरे यह तो गुलाब है। मेरे लिए लाये हो न ? तो फिर छिपा क्यों रहे थे ? तुम दुनिया से डरते हो क्या ? ... " "हाँ, मैं डरता हूँ। प्यार में डरना होता है। अगर नहीं डरे तो दुनिया की हर शक्ति डराने पर उतारू हो जायेगी। दुनिया चाहती है की जो प्यार करे वो डरे। असल में यहाँ प्यार करने की योग्यता 'डर' है। जो डरा नहीं समझो प्यार किया नहीं। " "... चल हट झूठे ! मैंने तो सुना है कि प्यार करने वाले कभी डरते नहीं ! तुमने सलमान की फ़िल्म 'प्यार किया तो डरना क्या' शायद नहीं देखी। " "देखी है मैंने, और उसमें भी सलमान डरता तो है ही...काज़ोल के भाई से !" "... छोड़ो यार। तुम न कुछ भी बोलते हो। मैं तो नहीं डरती किसी से....मुझसे सीखो !" "अच्छा ! फिर यह स्कॉफ तुमने क्यों बाँध रखा है ?" "ताकि लोग मुझे पहचान न ले। कोई मुझे तुम्हारे साथ देख न ले " "इसका मतलब मोनिका तुम जाहिर होने से डरती हो। प्यार में जाहिर होने से डरती हो। &quo

सिमी-राकेश (लप्रेक)

"... सिमी, आजकल मुझे ऐसा लगता है कि कोई मेरा पीछा कर रहा है, कोई है जो मुझ पर नज़र रखे हुए है। मैं विचलित हो रहा हूँ, मैं अपने आपको एकाग्र नहीं कर पा रहा। मैं बयाँ नहीं कर सकता कि आजकल मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ। किसी काम में मेरा मन नहीं लग रहा। सब निरस सा प्रतीत हो रहा है। पढ़ाई-लिखाई, UPSC  के सपने सब फीके ! ...  सिमी ...सिमी , हैलो तुम सुन रही हो न ?" "हाँ मैं सुन रही हूँ। यह तुम्हारे साथ कोई नई बात तो है नहीं ! पहले भी कई बार तुम ऐसी बातें बता चुके हो। यह सब तुम्हारे उपन्यास और उन फ़ालतू के विचारकों को पढ़ने के परिणाम हैं। उन्हें पढ़ना बंद कर दो और अपने कोर्स पर ध्यान दो। समझे !" "फ़ालतू ? तुम भगत सिंह, लोहिया , मार्क्स , गोर्की , रूसो इनसब को फ़ालतू कैसे कह सकती हो सिमी। तुमने कभी उन्हें पढ़ा नहीं और फ़ालतू कह रही हो ?" "तो और क्या कहूँ ! क्या उनके विचारों से आज़तक कोई सामाधान सामने आ पाया है ? क्या बदल दिया उन्होंने समाज में ? उनके पहले समाज जैसा था, उनके वक़्त भी वैसा ही रहा और आज भी कोई बदलाव नहीं दिखता! तो क्या कहें ऐसे विचारकों को ?" &qu

ऐ प्रिये...

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ऐ  प्रिये तुम मिल गयी ऐसे क्या बतलाऊँ मिली तुम कैसे भटक रहा तन था मेरा मृगतृषणित मन था मेरा पतझड़ सा मैं वीरान पड़ा था पत्थर सा मैं ठोकर खाता फिर कहीं से तुम चली आयी नदी सी बहती कल कल करती तुमने मेरी प्यास बुझाई शुष्क वृक्ष ने हरियाली पाई जो विह्वल मन दौड़ रहा था उसे मिला अब ठौर ठिकाना ऐ  प्रिये तुम मिल गयी ऐसे क्या बतलाऊँ मिली तुम कैसे झरने सी तुम गिर रही हो मेरे पत्थर दिल को चूम रही हो कण कण अब मैं खुल रहा हूँ तुझमें जाकर घूल रहा हूँ ऐ प्रिये अब ले चल कहीं वहाँ जहाँ सभी सो रहें हों वहाँ जहाँ सब शून्य पड़ा हो क्षितिज पर ले चल क्षितिज पर ले चल वहाँ जहाँ आसमां धरती चूम रहा हो ले चल- ले चल , ले चल - ले चल ऐ  प्रिये अब ले चल - ले चल।                                ~  राहुल सिंह  

*न्याय विहीन आर्थिक विकास हिंसा को जन्म देता है...!*

चोरी, लूट, अपहरण, रिश्वतखोरी, जमाख़ोरी आदि प्रायः अखबारों की सुर्ख़ियों में होतें हैं। ये सुर्खियाँ इस बात की ग़वाह हैं कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव मूल्यों का ह्रास हुआ है एवं व्यक्तिगत आर्थिक विकास हेतु हिंसात्मक गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है। समाज में हमेशा परिवर्तनशीलता एवं गतिशीलता विद्यमान रहतें हैं। इसी कारण मानव प्रवृति में भी परिवर्तन आया। विकास के अन्य प्रतिक अर्थ के सामने बौने हो गए। आर्थिक विकास, विकास का सबसे बड़ा एवं एकमात्र द्योतक के रूप में उभरकर समाज में आसन ज़मा लिया। इस प्रकार अर्थ ही सर्वोपरि हो गया। कहतें हैं "खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।" समाज में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को देखकर अपनी हैसियत तय करता है। हैसियत का सम्बन्ध भी आर्थिक विकास से ही होता है। एक व्यक्ति उनसब चीज़ों को पा लेना चाहता है जो उसके आस-पड़ोस में तो मौजूद है परन्तु उसका उसपे स्वामित्व नहीं है। इसी तरह समाज में एक संघर्षात्मक प्रतिस्पर्धा का जन्म होता है। बुनियादी ज़रूरतों के साथ साथ अर्ध एवं पूर्णविलासिता वस्तुएँ भी प्राथमिकता बना लेती हैं। अब इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए ढ़ेर स

*वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के मूलभूत दोष और उनका इलाज़*

समाज और राजनीति एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। किसी देश की राजनीति में आये बदलाव के कारण समाज में बदलाव आना स्वभाविक हो जाता है और समाज में आये परिवर्तन राजनीति में परिवर्तन लाने का काम करता है। अतः इसी संदर्भ में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के दोषों को देखा जा सकता है। आज हमारा समाज 'दिखावेपन' को बढ़ावा देता दिखाई पड़ता है। समाज में स्मार्ट फ़ोन, ब्रैंडेड कपड़े, गाड़ी आदि स्टेटस सिंबल बन गएँ हैं। लोग अपना स्टेटस बनाने के लिए अपने मूलभूत जरूरतों को भी नज़रअंदाज़ करने को तैयार हैं। यही दोष राजनीति में भी शामिल हो चुका है। योजनाओं के बज़ट से अधिक विज्ञापन का बज़ट हो गया है। योजना प्रगतिशील हो या न हो, लोगों तक उनका लाभ पहुँच रहा हो या न पर भौकाली देना आवश्यक है। इसमें मीडिया वाले इनका बखूबी साथ देतें हैं। लोग भी "अपना कान पकड़ने के वजाए कौवे को देखते" हैं। आज व्यक्ति की ब्रैंडिंग पर विशेष ज़ोर दिया जा रहा है। टीवी चैनलों एवं अख़बार द्वारा राजनेताओं का ब्रैंडिंग किया जा रहा है। समाज़हित के मूलभूत प्रश्नों को दरकिनार कर एक राजनेता कितने बजे जागता है, सोता है, दिन म

इश्क़ में नाम मत कहो (GAZAL)

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इस सहर को सर-ए-शाम मत कहो हाथ इमरित है इसे जाम मत कहो * नज़र से बातें हुई फ़िर और बातें हुई बात से डर कर कत-ए-कलाम मत कहो * आप मेरी फ़िक्र करे हम आपकी करतें हैं यह इश्क़ का डोर है इसे लग़ाम मत कहो * ख़त बिना लौट कर आना नामाबर का दास्ताँ मुकम्मल है फ़क़त पयाम मत कहो * नाम होगा शायरी में उनका कहीं न कहीं पढ़ लिया हो अगर नाम सरेआम मत कहो * नाम ले लेकर, कर बदनाम देते हैं लोग रस्म हो यह इश्क़ में नाम मत कहो * इश्क़,मुहबत,अमन ही अल्लाह का पैगाम है गर लगाये पाबंदी कोई उसे इमाम मत कहो * सफ़र पर निकल गए हो तो चलते चलो 'सिंह' छाँव है जगह जगह पर अराम मत कहो                                                          राहुल सिंह 

आज़ साक़ी ने मुझे पिलाया ही नहीं !(GAZAL)

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हसरते दिल लब पर कभी आया ही नहीं शायद मिरी मुहबत उसे भाया ही नहीं * हालाते आशिक़ पर खिलखिलाने वालों मुमकिन है कि तुमने दिल लगाया ही नहीं * जागते रह गए दीदारे हुस्न के लिए चाँद था वह, चाँद ने कल बताया ही नहीं * यह नशा उनका कि बेख़ुद हैं हम, वरना आज़ साक़ी ने मुझे पिलाया ही नहीं * मान लूँ कैसे किसी को हमराह अपना जब यहाँ कोई किसी के साथ आया ही नहीं                             राहुल सिंह